SHODASHA SAMSKAARAH ( षोडश संस्कारः )
नीचे दिये संस्कार कर्म से पहले कुछ देवता प्रतिष्ठा किया जाता है जो अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य माना जाता है
A)विघ्न विनाशक गणपति पूजा :
नियोजित संस्कार कर्म मे कोइ विघ्न उत्पन्न न हो
B) पुण्याह वाचन : इसमे स्वस्तिवाचन रहेगा ,पुण्यं अहः इस दिन आपको पुणुप्रद हो ऐसा ब्राह्मणोसे कि जानेवाला वाचन, संस्कार कर्तृ ,संस्कार्या और सभी परिवार को सुख संतोष मिले यहि प्रधान उद्दिष्ट है
C) मातृका पूजन : प्रत्येक व्यक्ति,परिवारको एक कुलदेवता ,कुलदेवी निश्चित है शुभ कर्म प्रारंभ से पूर्व पुण्याह वाचना नन्तर परिवार समेत कुल कल्याण केलिये किया जानेवाला क्रिया
D) नान्दी श्राद्ध : पितरोसे उद्देशित कि जानेवाली श्राद्ध, घर मे नियोजित मङ्गल कार्य मे समस्त पितृ गण सूक्ष्म रुपसे उपस्थित रहकर स्ंतोषसे अवलोकन करते हुये शुभाशीर्वाद देते है यहि विश्वास से पितृ पूजन करके सत्कार करना इस कर्म को नांदी श्राद्ध कहलाता है
E) मंटप देवता प्रतिष्ठापना : जिस मे शुभ कार्य करना है उस मण्डप का पूजन आम्र पत्र को कार्पास सूत्र से बान्धकर नन्दिनी, नलिनी, मैत्री, उमा, पशुवर्धिनि, शस्त्र गर्भा, भगवति यहि सप्त मातावोका आवाहन करके प्रतिष्ठापना की जाति है कर्म समाप्तिमे देवकोत्थापन, मण्डपो द्वासन और आवाहित देवतावोंका विसर्जन करना आवश्यक है एसा माना जाता है की मण्डप देवता प्रतिष्टापन से विसर्जन तक मतलब शुभ कार्य प्रारम्भ से अन्त्य तक दरम्यान कोयी भी अघटित घतनाये घटि हो तो नियोजित शुभ कार्य सुसंगत करनेमे बाधा नहो यहि उद्देश इस कर्म मूल प्रमाण है
1) गर्भाधान संस्कार ( Garbhaadhan Sanskar) – यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।
2) पुंसवन संस्कार (Punsavana Sanskar) – गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।
3) सीमन्तोन्नयन संस्कार ( Simanta Sanskar) – यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।
4) जातकर्म संस्कार (Jaat-Karm Sansakar) – बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
5) नामकरण संस्कार (Naamkaran Sanskar)- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।
अ) कुल देवता भक्त नाम : कुलदेवता भक्त रुपमे प्रथम नाम
ब) मास नाम : मास नियामक संकेत नाम रूप द्वितीय नाम
क) नाक्षत्र नाम : जन्म नक्षत्र के आद्यक्षर के रूप तृतीय नाम
ड) लौकिक नाम : व्यवहार केलिये रखा गया चतुर्थ नाम, माना गया है की नामकरण से आयुष्याभिवृद्धि ,और लौकिक प्रतिष्ठा वृद्धिंगत होता है
6) निष्क्रमण संस्कार (Nishkraman Sanskar) – निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
7) अन्नप्राशन संस्कार ( Annaprashana) – यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
8) चूडाकर्म / मुंडन संस्कार ( Mundan Sanskar)- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।
विद्या आरंभ संस्कार ( Vidhya Arambha Sanskar )- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।
कर्णवेध संस्कार ( Karnavedh Sanskar) – इस संस्कार में कान छेदे जाते है । इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।
9) उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार (Yagyopaveet Sanskar) – उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।
इसमे चौल, मातृ भोजन, स्नान, देव दर्शन, आचार्य तथा गुरु सामीप्य, गायत्री मन्त्रोपदेश, कति सूत्र , कौपीन वस्त्र , अजिन मेखला यज्ञोपवित, दण्ड धारण इत्यादि प्रधान विधियोंका समावेश है बाद मे शिष्यत्व सिद्धि केलिये उपनयन प्रधान होम,अञ्जलिक्षारण, हस्त ग्रहण, सूर्य वेक्षण,हृदया लम्बन,अग्नि उपस्थान कर्म के पश्च्यात मौञ्जी बन्धन,दिर्धाराणावति मेधाजनन सूक्त से अभिमन्त्रित, वेद व्रत ग्रहण,सूचक व्रत बन्ध इत्यादि से बाध्य होनेसे उपनीत संस्कार से पुनर्जनमित होकर द्विजत्व प्राप्ति हो जाता है
10) महानाम्नी संस्कार वेदाध्यन केलिये व्रतस्थ रहना प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है
11) महाव्रत संस्कार वेदाध्यन केलिये व्रतस्थ रहना प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है
12) वेदारंभ संस्कार (Vedaramba Sanskar) – इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है
13) केशांत संस्कार (Keshant Sanskar) – प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है
केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।
14) गोदान संस्कार : प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है दक्षिणा रुपसे गुरु को गाय अर्पण करने को गोदान कहलाता है
15) समावर्तन संस्कार (Samavartan Sanskar)- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
16) विवाह संस्कार ( Vivah Sanskar) – यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
a) वाक़् निश्चय :
b) सीमांत पूजन :
c) मधुपर्क :
d) गौरी हर पूजा :
e) मंगलाष्टक :
f) कन्यादान :
g) अक्षतारोपण, सूत्र वेष्टन :
h) लाजा होम :
i) गृह प्रवेशनिय होम :
j) ऐरिणी पूजा :
k) लक्ष्मी पूजा :
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अंत्येष्टी संस्कार (Antyesti Sanskar)- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है।
नीचे दिये संस्कार कर्म से पहले कुछ देवता प्रतिष्ठा किया जाता है जो अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य माना जाता है
A)विघ्न विनाशक गणपति पूजा :
नियोजित संस्कार कर्म मे कोइ विघ्न उत्पन्न न हो
B) पुण्याह वाचन : इसमे स्वस्तिवाचन रहेगा ,पुण्यं अहः इस दिन आपको पुणुप्रद हो ऐसा ब्राह्मणोसे कि जानेवाला वाचन, संस्कार कर्तृ ,संस्कार्या और सभी परिवार को सुख संतोष मिले यहि प्रधान उद्दिष्ट है
C) मातृका पूजन : प्रत्येक व्यक्ति,परिवारको एक कुलदेवता ,कुलदेवी निश्चित है शुभ कर्म प्रारंभ से पूर्व पुण्याह वाचना नन्तर परिवार समेत कुल कल्याण केलिये किया जानेवाला क्रिया
D) नान्दी श्राद्ध : पितरोसे उद्देशित कि जानेवाली श्राद्ध, घर मे नियोजित मङ्गल कार्य मे समस्त पितृ गण सूक्ष्म रुपसे उपस्थित रहकर स्ंतोषसे अवलोकन करते हुये शुभाशीर्वाद देते है यहि विश्वास से पितृ पूजन करके सत्कार करना इस कर्म को नांदी श्राद्ध कहलाता है
E) मंटप देवता प्रतिष्ठापना : जिस मे शुभ कार्य करना है उस मण्डप का पूजन आम्र पत्र को कार्पास सूत्र से बान्धकर नन्दिनी, नलिनी, मैत्री, उमा, पशुवर्धिनि, शस्त्र गर्भा, भगवति यहि सप्त मातावोका आवाहन करके प्रतिष्ठापना की जाति है कर्म समाप्तिमे देवकोत्थापन, मण्डपो द्वासन और आवाहित देवतावोंका विसर्जन करना आवश्यक है एसा माना जाता है की मण्डप देवता प्रतिष्टापन से विसर्जन तक मतलब शुभ कार्य प्रारम्भ से अन्त्य तक दरम्यान कोयी भी अघटित घतनाये घटि हो तो नियोजित शुभ कार्य सुसंगत करनेमे बाधा नहो यहि उद्देश इस कर्म मूल प्रमाण है
1) गर्भाधान संस्कार ( Garbhaadhan Sanskar) – यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।
2) पुंसवन संस्कार (Punsavana Sanskar) – गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।
3) सीमन्तोन्नयन संस्कार ( Simanta Sanskar) – यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।
4) जातकर्म संस्कार (Jaat-Karm Sansakar) – बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
5) नामकरण संस्कार (Naamkaran Sanskar)- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।
अ) कुल देवता भक्त नाम : कुलदेवता भक्त रुपमे प्रथम नाम
ब) मास नाम : मास नियामक संकेत नाम रूप द्वितीय नाम
क) नाक्षत्र नाम : जन्म नक्षत्र के आद्यक्षर के रूप तृतीय नाम
ड) लौकिक नाम : व्यवहार केलिये रखा गया चतुर्थ नाम, माना गया है की नामकरण से आयुष्याभिवृद्धि ,और लौकिक प्रतिष्ठा वृद्धिंगत होता है
6) निष्क्रमण संस्कार (Nishkraman Sanskar) – निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
7) अन्नप्राशन संस्कार ( Annaprashana) – यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
8) चूडाकर्म / मुंडन संस्कार ( Mundan Sanskar)- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।
विद्या आरंभ संस्कार ( Vidhya Arambha Sanskar )- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।
कर्णवेध संस्कार ( Karnavedh Sanskar) – इस संस्कार में कान छेदे जाते है । इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।
9) उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार (Yagyopaveet Sanskar) – उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।
इसमे चौल, मातृ भोजन, स्नान, देव दर्शन, आचार्य तथा गुरु सामीप्य, गायत्री मन्त्रोपदेश, कति सूत्र , कौपीन वस्त्र , अजिन मेखला यज्ञोपवित, दण्ड धारण इत्यादि प्रधान विधियोंका समावेश है बाद मे शिष्यत्व सिद्धि केलिये उपनयन प्रधान होम,अञ्जलिक्षारण, हस्त ग्रहण, सूर्य वेक्षण,हृदया लम्बन,अग्नि उपस्थान कर्म के पश्च्यात मौञ्जी बन्धन,दिर्धाराणावति मेधाजनन सूक्त से अभिमन्त्रित, वेद व्रत ग्रहण,सूचक व्रत बन्ध इत्यादि से बाध्य होनेसे उपनीत संस्कार से पुनर्जनमित होकर द्विजत्व प्राप्ति हो जाता है
10) महानाम्नी संस्कार वेदाध्यन केलिये व्रतस्थ रहना प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है
11) महाव्रत संस्कार वेदाध्यन केलिये व्रतस्थ रहना प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है
केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।
14) गोदान संस्कार : प्रस्तुत यह संस्कार उपनयन मे ही किया जाता है दक्षिणा रुपसे गुरु को गाय अर्पण करने को गोदान कहलाता है
15) समावर्तन संस्कार (Samavartan Sanskar)- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
16) विवाह संस्कार ( Vivah Sanskar) – यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
a) वाक़् निश्चय :
b) सीमांत पूजन :
c) मधुपर्क :
d) गौरी हर पूजा :
e) मंगलाष्टक :
f) कन्यादान :
g) अक्षतारोपण, सूत्र वेष्टन :
h) लाजा होम :
i) गृह प्रवेशनिय होम :
j) ऐरिणी पूजा :
k) लक्ष्मी पूजा :
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अंत्येष्टी संस्कार (Antyesti Sanskar)- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है।
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