Wednesday, November 20, 2019

ASHWATHA STOTRA 2 PURASHCHARANA || श्री अश्वत्थ स्तोत्र (क्रमव्यत्क्रम) पुरश्चरण ||

|| श्री अश्वत्थ स्तोत्र (क्रमव्यत्क्रम) पुरश्चरण  || 
श्री गणेशाय नमः । 

हरिःॐ 
अनायासेन लोकोयं सर्वान् कामानवाप्नुयात्  । सर्व देवात्मकं  चैव  तन्मै ब्रूहि  महत्पितः |   छिन्नोयेन  वृथाश्वत्थ   छेदिता  पितृदेवता  ।  अश्वत्थः  पूजितो यत्र  पूजिता सर्व  देवता   । १ ।
शृणु देव मुनोश्वत्थं  शुद्धं सर्वात्मकं तरुं  ।  यत्प्रदषिणतॊ लोकः सर्व कामान् समश्नुते   |   एवं आश्वाशितोSश्वत्थ:  सदा श्वासाय कल्पते ।  यज्ञार्थ  छेदितोश्वत्थे अक्षयं स्वर्ग माप्नुयात् । २ ।
अश्वत्था  दक्षिणो रुद्रः  पश्चिमे  विष्णुरास्थितः  ।  ब्रह्माचोत्तर  देशस्थः  पूर्वेत्  इंद्रादिदेवता | अश्वत्थ मूलमाश्रित्य  जप होम सुरर्चनात्  ।  अक्षयं फल माप्नो ती  अगस्त्यो वचनं यथा । 3 |         
स्कंधोप स्कंध पत्रेषु गोविप्र मुनयस्थथः । मूलं वेदा पयो यज्ञा  संस्थिता मुनि पुंगवः | अश्वत्थः स्थापितोयेन  तत् कुलं स्थापितं ततः  ।  धनायुषां समृध्धिस्तु  नरकात् तारयेत् पितन्  । ४ ।
पूर्वादि दिक्षु संयाता नदिनद्  सरोब्दयः  । तस्मात्  सर्व  प्रयत्नेन  अश्वत्थः  संश्रयेद् बुधः   |  
पदे पादांतरंगत्वा  करचेष्टा  विवर्जितः  ।  वाचि  स्तोत्रं  मनोध्यानॆ चतुरंग प्रदक्षिणं  । ५ ।
त्वं  क्षीर्य  फलकश्चैव  शीतलश्च  वनस्पते  । त्वमाराध्य नरो  विद्या दैहिकं  मुष्मिकं  फलं   |   
मौनि प्रदक्षिणं  कूर्यात् प्राग्युक्त  फल भाग्  भवेत्  । विष्णोर्नाम  सहस्रेण  अच्युतस्यापि  कीर्तनात् । ६ ।
अश्वत्थ यस्मात्वयि वृक्षराज  | नारायण तिष्ठति सर्व कालं  ।  अतः शृतस्त्वं सततं तरूणाम्  |  धन्यो चारिष्ट विनाशकोशि | एकहस्तं द्विहस्तं वा  कूर्याद् गोमय लेपनं  ।  अर्चयेत्  पुरुष सूक्तेन  प्रणवेन  विशेषतः | ७ |
क्षीरदस्त्वं च  एनेह  एनः  श्री स्त्वाम्  निषेवते   ।  सत्येन  तेन  वृक्षॆंद्र  मामपि  श्रीर्निषेवतां|ब्रह्मा गोविदाश्चैव धृतिर्  देवादि  क्रीडितः ।  आवृत्य लक्ष संख्यं च स्तोत्र  मेतत्  सुखी  भवेत्   | ८ |
एकादशात्मा  रुद्रोसि   वसुनाथ  शिरोमणिः  ।  शनैश्चरोसि  देवानां  वृक्षराजोसि  पिप्पलः   |
ऋग्युजुः साम मंत्रात्मा सर्व रूपि परात्परः  ।  अश्वत्थो वेद मूलोसा वृषिभिः प्रोच्यतॆ सदा | ९ |
अग्निगर्भः  शमी गर्भो  देव गर्भः  प्रजापति:  ।  हिरण्य गर्भो  भूगर्भो  यज्ञगर्भो नमोस्तुते  |
आयुः प्रजां धनं धान्यं सौभाग्यं सर्व संपदः  । देहि  देव  महावृक्ष  त्वामहं  शरणं गतः   | १० |
आयुर्बलं  यशोवर्चः   प्रजाः  पशु वसूनिच  ।  ब्रह्म  प्रद्ज्ञाम् च मेधां च  त्वनो देहि नमोस्तुते  |
अश्व त्थः समुहाभागः सुभगः  प्रियदर्शनः  ।  इष्टकामाश्चमे देहि  शस्त्रुर्भ्यस्तु   पराभवं | ११ | 
सततं वरुणो  रक्षो  त्वमारादृष्टिराश्रयेत्  । परितस्त्वां  निषेवंतां  निंबकः  सुखमश्नु ते   |
य दृष्ट्वा मुच्यतॆ रोगैः  स्पृष्ट्वा पापै : प्रमुच्यतॆ  ।  यदाश्रया चिरंजीवि  त्वमश्वत्थं  नमाम्यहं | १२ |
अक्षिस्पंदं  भुज  स्पंदं दुस्वप्नं  दुर्वि  चिंतनं  ।  शत्रूणाम्  च समुत्थानं  अश्वत्थः शमय प्रभो   | 
अक्षिस्पंदं  भुज  स्पंदं दुस्वप्नं  दुर्वि  चिंतनं  ।  शत्रूणाम् च समुत्थानं  अश्वत्थः शमय प्रभो|१३ |
य दृष्ट्वा मुच्यतॆ रोगैः  स्पृष्ट्वा पापै : प्रमुच्यतॆ  ।  यदाश्रया चिरंजीवि  त्वमश्वत्थं  नमाम्यहं   |
सततं वरुणो  रक्षो  त्वमारादृष्टिराश्रयेत्  । परितस्त्वां  निषेवंतां  निंबकः  सुखमश्नु ते । १४ ।
अश्व त्थः समुहाभागः सुभगः  प्रियदर्शनः  ।  इष्टकामाश्चमे देहि  शस्त्रुर्भ्यस्तु  पराभवं  |
आयुर्बलं  यशोवर्चः   प्रजाः  पशु वसूनिच  ।  
ब्रह्म प्रज्ञान्च  मेधां च  त्वनो देहि नमोस्तुते । १५ ।
आयुः प्रजां धनं धान्यं सौभाग्यं सर्व संपदः । 
देहि  देव  महावृक्ष  त्वामहं  शरणं गतः |
अग्निगर्भः  शमी गर्भो  देव गर्भः  प्रजापति:  ।  हिरण्य गर्भो  भूगर्भो  यज्ञगर्भो नमोस्तुते  । १६ ।
ऋग्यजुः साम मंत्रात्मा सर्व रूपि परात्परः । अश्वत्थो वेद मूलोसा वृषिभिः प्रोच्यतॆ सदा |
एकादशात्मा  रुद्रोसि   वसुनाथ  शिरोमणिः  ।  शनैश्चरोसि  देवानां  वृक्षराजोसि  पिप्पलः । १७ ।ब्रह्मा गोविदाश्चैव धृतिर्  देवादि  क्रीडितः  ।  आवृत्य लक्ष संख्यं च स्तोत्र  मेतत्  सुखीभवेत्  |
क्षीरदस्त्वं च  एनेह  एनः  श्री स्त्वाम्  निषेवते   ।  सत्येन  तेन  वृक्षॆंद्र  मामपि  श्रीर्निषेवतां । १८ ।  एकहस्तं द्विहस्तं वा  कूर्याद् गोमय लेपनं  ।  अर्चयेत्  पुरुष सूक्तेन  प्रणवेन  विशेषतः |
अश्वत्थ यस्मात्वयि वृक्षराज नारायण तिष्ठति सर्व कालं ।  अतः शृतस्त्वं सततं तरूणाम्  धन्यो चारिष्ट विनाशकोशि  । १९ ।
मौनि प्रदक्षिणं  कूर्यात् प्राग्युक्त  फलभाग्  भवेत् । विष्णोर्नाम  सहस्रेण  अच्युतस्यापि  कीर्तनात्  | त्वं  क्षीर्य  फलकश्चैव  शीतलश्च  वनस्पते  । त्वमाराध्य नरो विद्या दैहिकं  मुष्मिकं  फलं ।२० ।पदे पादांतरंगत्वा  करचेष्टा  विवर्जितः  ।  वाचि  स्तोत्रं  मनोध्यानॆ चतुरंग प्रदक्षिणं |पूर्वादि दिक्षु संयाता नदिनद्  सरोब्दयः  । तस्मात्  सर्व  प्रयत्नेन  अश्वत्थः  संश्रयेद् बुधः  । २१ ।  
अश्वत्थः स्थापितोयेन  तत् कुलं स्थापितं ततः  ।  धनायुषां समृध्धिस्तु  नरकात् तारयेत् पितन्  |
स्कंधोप स्कंध पत्रेषु गोविप्र मुनयस्थथः । मूलं वेदा पयो यज्ञ्या संस्थिता मुनि पुंगवः   | २२ ।
अश्वत्थ मूलमाश्रित्य  जप होम सुरर्चनात्  ।  अक्षयं फल माप्नो ती  अगस्त्यो वचनं यथः   |
अश्वत्था  दक्षिणो रुद्रः पश्चिमे  विष्णुरास्थितः  ।  ब्रह्माचोत्तर  देशस्थः पूर्वेत्  इंद्रादिदेवता  । २३ । 
एवं आश्वाशितोSश्वत्थ:  सदा श्वासाय कल्पते ।  यज्ञार्थ  छेदितोश्वत्थे अक्षयं स्वर्ग माप्नुयात्   |
शृणु देव मुनोश्वत्थं  शुद्धं सर्वात्मकं तरुं  ।  यत्प्रदषिणतॊ लोकः सर्व कामान् समश्नुते | २४ । 
छिन्नोयेन  वृथाश्वत्थ   छेदिता  पितृदेवता  ।  अश्वत्थः  पूजितो यत्र  पूजिता सर्व  देवता   |
अनायासेन लोकोयं सर्वान् कामानवाप्नुयात्  । सर्व देवात्मकं  चैव  तन्मै ब्रूहि  महत्पितः| २५ | 
यो अश्वत्थ रूपेण नदी तटाके | विराजते सर्व जगन्निवासः | ब्रह्मादि देवाच्युत पाद पल्लवो | गोविन्दराजो वतुमां परेशः | २६ |   
शङ्खं चक्र गदाम्बुज चाप बाणै | राराजितै श्चन्द्रल लक्ष्मी समेतः | शर्वादि देवार्चित पाद पल्लवो | गोविन्दराजो वतुमां परेशः  | २७ |
अभयं गदिनञ्च शङ्ख चक्रं | चापं तुणिरं द्रष्टमयं तदैव | 
ते नैव रूपेण चतुर्भुजेन प्रलयान्तको भव विश्वमूर्ते                                                                    | २८ |

इती श्री ब्रह्मांड पुराणॆ  ब्रह्म नारद संवादॆ  श्रीमद् अश्वत्थ स्तोत्र क्रमव्यत्क्रम पुरश्चरणम् संपूर्ण  । 
श्री कृष्णार्पणमस्तु ।  


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