संस्कॄतस्य महति
संस्कृत में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं जो उसे अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ट और विशिष्ट बनाती हैं।
( ० ) अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:) :-
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग।
पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। और
नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा।
कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं।
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '' राम फल खाता है``
इसको संस्कृत में बोला जायेगा- '' राम: फलं खादति"
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है।
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।
२- शब्द-रूप :-
संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार २५ रूप बनते हैं।
यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा: रामौ राजमणि सदा विजयते
रामं रामौ रामान् रामं रमेशं भजे
रामेण रामाभ्यां रामै: रामेणा बिहता निशाचर चमू
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: रामाय तस्मये नमः
रामत् रामाभ्यां रामेभ्य: रामान् नास्ति परायणं परतरं
रामस्य रामयो: रामाणां रामस्सदा सोस्मेहं
रामे रामयो: रामेषु रामे चित्तलयः सदा भवतुमे
हे राम! हेरामौ! हे रामा:! भो ! राम मामुद्धरः
ये २५ रूप सांख्य दर्शन के २५ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सांख्य दर्शन के २५ तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण ४ ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ ५ ) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ ५) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें ५ ) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत ५ ) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश
३- द्विवचन :-
संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है।
जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
४ सन्धि :-
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।
''इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- १ इत्यहं जानामि।
२ अहमिति जानामि।
३ जानाम्यहमिति ।
४ जानामीत्यहम्।
इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।
इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते है
भाषा.... चमत्कार
युधिष्ठिरस्य या कन्या , नकुलेन विवाहिता |
पूजिता सहदेवेन , सा कन्या वरदा भवेत् |
युधिष्ठिर ची मुलगी जिचा विवाह नकुल सोबत झाला होता , आणि सहदेवाने जिची पूजा केली , ती मुलगी आम्हाला वरदायिनी होवो.
हा आहे त्या श्लोकाचा अर्थ , धक्का बसला ? काही लोकं येतातच त्याचा वेगळा अर्थ लावायला की भावाच्या मुलीशी कसे लग्न केले म्हणजे त्यावेळी हे सगळे चालत होते का ?
आता नेमके हे काय रहस्य आहे , हे जाणून घेण्यासाठी भाषाज्ञान आवश्यक आहे. पर्यायाची आणि व्याकरणाची सुंदरता यात दिसून येते.
युधिष्ठिर हे हिमालयाचे नाव आहे. जो नेहमी अविचल भावाने उभा राहतो. पर्वतांना भूधर , अचल , महिधर , युधिष्ठिर अशा अनेक नावांनी म्हटले गेलेले आहे. इथे युधिष्ठिर चा अर्थ पर्वत (हिमालय) आहे.
आता नकुल शब्दावर येऊ , इथे नञ् समास चा नियम लागु होतो , न म्हणजे नाही. ज्याचे काही कुल (कुळ) नाही तो नकुल. म्हणजेच भगवान शिव. ज्याचा कोणी जनक नाही , तोच अनादी अजन्मा महादेव , नकुल.
सहदेवेन म्हणजे , याचे दोन अर्थ आहेत एक सहदेवा द्वारे आणि दुसरा देवा सोबत. इथे कर्मधारय समास नुसार दुसरा अर्थ बसतो , देवा सोबत म्हणजे देव हा शब्द देखील महादेव साठी आला आहे.
आता याचा अर्थ लावा.
युधिष्ठिर (हिमालय) ची पुत्री जिचा विवाह नकुल (शिव) सोबत झाला , (महा) देव सोबत जिची पूजा होते, ती कन्या (पार्वती) आमच्यासाठी वरदायिनी होवो.
आता कळले , संस्कृतला दिव्य भाषा का म्हटले जाते ,
( ० ) अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:) :-
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग।
पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। और
नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा।
कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं।
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '' राम फल खाता है``
इसको संस्कृत में बोला जायेगा- '' राम: फलं खादति"
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है।
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।
२- शब्द-रूप :-
संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार २५ रूप बनते हैं।
यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा: रामौ राजमणि सदा विजयते
रामं रामौ रामान् रामं रमेशं भजे
रामेण रामाभ्यां रामै: रामेणा बिहता निशाचर चमू
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: रामाय तस्मये नमः
रामत् रामाभ्यां रामेभ्य: रामान् नास्ति परायणं परतरं
रामस्य रामयो: रामाणां रामस्सदा सोस्मेहं
रामे रामयो: रामेषु रामे चित्तलयः सदा भवतुमे
हे राम! हेरामौ! हे रामा:! भो ! राम मामुद्धरः
ये २५ रूप सांख्य दर्शन के २५ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सांख्य दर्शन के २५ तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण ४ ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ ५ ) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ ५) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें ५ ) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत ५ ) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश
३- द्विवचन :-
संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है।
जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
४ सन्धि :-
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।
''इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- १ इत्यहं जानामि।
२ अहमिति जानामि।
३ जानाम्यहमिति ।
४ जानामीत्यहम्।
इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।
इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते है
भाषा.... चमत्कार
युधिष्ठिरस्य या कन्या , नकुलेन विवाहिता |
पूजिता सहदेवेन , सा कन्या वरदा भवेत् |
युधिष्ठिर ची मुलगी जिचा विवाह नकुल सोबत झाला होता , आणि सहदेवाने जिची पूजा केली , ती मुलगी आम्हाला वरदायिनी होवो.
हा आहे त्या श्लोकाचा अर्थ , धक्का बसला ? काही लोकं येतातच त्याचा वेगळा अर्थ लावायला की भावाच्या मुलीशी कसे लग्न केले म्हणजे त्यावेळी हे सगळे चालत होते का ?
आता नेमके हे काय रहस्य आहे , हे जाणून घेण्यासाठी भाषाज्ञान आवश्यक आहे. पर्यायाची आणि व्याकरणाची सुंदरता यात दिसून येते.
युधिष्ठिर हे हिमालयाचे नाव आहे. जो नेहमी अविचल भावाने उभा राहतो. पर्वतांना भूधर , अचल , महिधर , युधिष्ठिर अशा अनेक नावांनी म्हटले गेलेले आहे. इथे युधिष्ठिर चा अर्थ पर्वत (हिमालय) आहे.
आता नकुल शब्दावर येऊ , इथे नञ् समास चा नियम लागु होतो , न म्हणजे नाही. ज्याचे काही कुल (कुळ) नाही तो नकुल. म्हणजेच भगवान शिव. ज्याचा कोणी जनक नाही , तोच अनादी अजन्मा महादेव , नकुल.
सहदेवेन म्हणजे , याचे दोन अर्थ आहेत एक सहदेवा द्वारे आणि दुसरा देवा सोबत. इथे कर्मधारय समास नुसार दुसरा अर्थ बसतो , देवा सोबत म्हणजे देव हा शब्द देखील महादेव साठी आला आहे.
आता याचा अर्थ लावा.
युधिष्ठिर (हिमालय) ची पुत्री जिचा विवाह नकुल (शिव) सोबत झाला , (महा) देव सोबत जिची पूजा होते, ती कन्या (पार्वती) आमच्यासाठी वरदायिनी होवो.
आता कळले , संस्कृतला दिव्य भाषा का म्हटले जाते ,
असे कितीतरी श्लोक आपल्या धर्म ग्रंथात आहेत.
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